यह कैसी विडम्बना है - भाग १ Ratna Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

यह कैसी विडम्बना है - भाग १

जगमगाती हुई बल्बों की सीरीज, आसमान पर चमकते पटाखों की सुंदर रौशनी, घोड़े पर सवार वह शख़्स जो आज रात संध्या का जीवन साथी बन जाएगा। घर में ख़ुशियों का माहौल, इन सबके बीच धड़कता संध्या का दिल, अपने जीवन की नई पारी के इंतज़ार में खोया हुआ था। सात फेरे और मांग में सिंदूर भरते ही संध्या पत्नी बन कर हमेशा के लिए अपने जीवनसाथी वैभव की हो गई। जिस आँगन में उस ने जन्म लिया था, उस आँगन की आज वह मेहमान बन गई। ग़म और ख़ुशी के बीच के यह पल बड़े ही अजीब होते हैं। एक तरफ़ बाबुल का आँगन छूटने का ग़म होता है तो दूसरी तरफ़ नए परिवार से मिलने की ख़ुशी भी होती है। संध्या के पिता ने बहुत खोजबीन करने के बाद अनेक रिश्तो में से यह रिश्ता पसंद किया था। पढ़ा-लिखा परिवार, आर्थिक तौर पर संपन्न, अच्छा लड़का, अच्छी नौकरी, बस यही सब तो देखा जाता है और इस सब के बीच में होता है सबसे बड़ा विश्वास। विश्वास जो एक दूसरे पर किया जाता है उसका कोई सबूत नहीं होता। इसी विश्वास की डोर से बंधा था संध्या और वैभव का रिश्ता।

संध्या भोपाल के गर्ल्स डिग्री कॉलेज में लेक्चरर थी। उसने यहाँ से इस्तीफा दे दिया था ताकि ससुराल जाकर जबलपुर में किसी नए कॉलेज में नौकरी कर लेगी। मायके से विदा होकर संध्या ससुराल आ गई, जहाँ उसे सास के रूप में प्यारी-सी वैभव की माँ निराली मिली। एक ननंद भी मिली जिसकी शादी हो चुकी थी। कुछ नज़दीकी रिश्तेदार भी थे। निराली ने तो आते ही संध्या पर अपना प्यार लुटाना शुरू कर दिया। वह अपनी बेटी की ही तरह उसका भी ख़्याल रख रही थीं ताकि उसे घर में किसी तरह की कोई परेशानी ना हो। गृह प्रवेश से लेकर रात के नौ बजे तक निराली ना जाने कितनी बार संध्या के पास गई और उसे चाय, पानी, नाश्ता हर चीज के लिए पूछती रही। आज निराली को अपनी बेटी की विदाई की घड़ी याद आ रही थी। वह दृश्य कितना दर्दनाक और ममतामयी होता है । वही भावनाएं उनके दिल में आज संध्या के लिए भी उमड़ रही थीं।

वैभव का कमरा हल्के गुलाबी रंग के गुलाब के फूलों से सजा हुआ था। दोनों की आज पहली रात थी, मिलन की रात।

वैभव ने संध्या का घूँघट उठाते हुए कहा, "संध्या, आज मैं तुम्हारे लिए कोई उपहार नहीं लाया हूँ। तुम्हें साथ ले जाकर तुम्हारी पसंद से लेना ज़्यादा ठीक रहेगा।"

संध्या ने अपनी झुकी हुई खूबसूरत पलकों को ऊपर उठाते हुए कहा, "मेरा असली उपहार तो आप ही हैं।"

उसके बाद वे दोनों हमेशा-हमेशा के लिए एक दूसरे के हो गए। दो-तीन दिनों में सब मेहमान भी चले गए। अब घर में वैभव, निराली और संध्या ही थे। बहुत ही प्यार और सुकून से समय गुजर रहा था। संध्या को वैभव और निराली से इतना प्यार मिल रहा था, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। उसने तो अधिकतर यही सुना था कि शादी के बाद लड़की को अपने आप को बहुत बदलना पड़ता है। अपनी बहुत सी आदतें छोड़नी पड़ती हैं। बहुत कुछ सहन करना और सुनना भी पड़ता है किन्तु उसे तो ऐसा कुछ भी नहीं करना पड़ा।

धीरे-धीरे दो माह गुजर गए। संध्या के साथ वैभव और निराली का रिश्ता तो उतना ही प्यार भरा था किन्तु संध्या को महसूस हो रहा था कि यहाँ सब कुछ सही नहीं है। वह वैभव से पूछना चाहती थी पर कैसे?

क्रमशः

रत्ना पांडे वडोदरा, (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक